रवीश की लप्रेक

दो साल पहले जयपूर लिटरेचर फेस्टिवल में रवीशकुमार को सुना था. अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं के बारे में कुछ चर्चा थी. उस के पहले एनडीटीव्ही इंडिया पर तो उन्हें देखा ही था. फिर पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले रवीश ने यूपी में करीबन एक महिना बिताकर जो रिपोर्ताज बनाये, उस में से काफी देखे. यूपी थोडा थोडा समझ में आने लगा उस के बाद. फिर मैं रवीश काे फेसबुक पे फाॅलो करने लगी. वैसे देखा जाये तो वेा हिंदी पत्रकारिता के बडे सेलेब्रिटी, स्टार. पर ना कभी आवाज चढाकर बात करना, ना सामने वाले को छोटा समझना, ना तुच्छतापूर्ण बोलना. ऐसे रवीश के लिए सामान्य आदमी, काॅमन मॅन, बहुत अहम. रास्ते में से गुजरते गुजरते वो साथ में जो भी है उन के गले में हाथ डालता है, किसी दुकान में घुस दुकानदार से दो बाते लडाता है, चाय या पान की टपरी पर खडे लोगों से बातें करता है. ये रवीश मुझे बहुत भा गया. पिछले महिने जयपूर फेस्टिवल गयी, तो उन के इश्क में शहर होना का पोस्टर देखा. लप्रेक फेसबुक फिक्शन शृंखला का मतलब समझ में न आया तब. किताब वॅलेंटाइन डे को हाथ पहुँचेगी ऐसी स्कीम थी. तो मेरे एक युवा मित्र प्रतीक सिंग ने मेरे लिए आॅर्डर किया और ठीक वॅलेंटाइन डे काे किताब मेरे हाथ आ गयी. किताब एकदम फ्रेंडली आकार की, पाॅकेट बुक स्टाइल. रवीश का मनोगत पढा, तब बात समझ में आयी, कि लप्रेक याने लघुप्रेमकथा. फेसबुक स्टेटस का ये कलेक्शन था.
किताब में पन्ने है केवल ८८. हर लप्रेक एक पन्ने पर खतम. कुछ पाँचछह लाइनों की, तो कुछ बीस. पर एक भी एक पन्ने के बाहर नहीं. हर कथा के साथ दिल्ली के ही चित्रकार विक्रम नायक के चित्र.
पढना शुरू किया तो पहले ये बात जहन में आयी के, मुझे हिंदी समझती है ये कितनी किस्मत की बात हैं. पाठशाला में छहसात साल हिंदी जरूर पढी थी, फिर शादी के बाद ससुराल मध्य प्रदेश से होने के कारण हिंदी से लगाव बना, और बढता गया. भाषाओं से बहुत प्यार होने के कारण हिंदी से भी नाता जुड गया. प्रेमचंद आदि लेखक अभी हिंदी में नहीं पढे है, पर अब यकीन हुआ है के पढ पाऊँगी.
और एक अच्छी बात थी कि दिल्ली दो बार आना हुआ है, तीनचार दिन ही सही, पर दिल्ली देखी है. नहीं तो इस किताब का मजा इतना आता कि नहीं, कह नहीं सकती. इस किताब से दिल्ली को आप निकाल ही नहीं सकते, इतनी दिल्ली घुलमिल गयी है इन कथाओं में कि दिल्ली ही इस लेखक की महबूबा है. लप्रेक हो रही दिल्ली में, सिर्फ बॅकग्राउंड है, भौगोलिक संदर्भ है ऐसा नहीं है. दिल्ली का माहोल, वहाँ के रिक्षावाले, मेट्रो, बस, काॅलेजेस, रास्ते आदि एकदम सहज रूप से इन कथाओं में आते है. तब ये बात जरूर महसूस हुई, कि दिल्ली न जाने कितने किताबों की नायिका है, जो दिल्ली के प्रेम में हैं उनकी लिखी हुई. तो मुंबई पर ऐसी किताब क्यों नहीं, क्या मुंबई सिर्फ पैसा कमाने के लिए है, क्या मुंबई के प्रेम में कोई नहीं है? विक्रम नायक के चित्र भी उसी तरीके के, एक दिल्लीवालाही बना सकता है ऐसा कुछ. जिस ने दिल्ली को अपनाया, बल्कि जिसे दिल्ली ने अपनाया हो.
आखिर में कुछ कथाएँ हैं जिन में राजनैतिक रंग है, राजनैतिक या सामाजिक. ये कथाएँ अन्ना हजारे के रामलीला मैदान वाले अनशन के बॅकग्राउंड पर लिखी हैं, फिर भी हैं वह लप्रेकही.
सो, वॅलेंटाइन डे तो बहुत बढिया हुआ इस किताब की वजह से. किताब पढ रही थी ट्रेन में, आॅफिस आते आते. पहँच कर फेसबुक पर बालाजी सुतार इस युवा मित्र का ब्लाॅग पढा, बिल्कुल इसी तरही की लप्रेक वाला. मेरा तो दिन बन गया.
एक जरूरी सूचना : मैं ने रवीश के नाम के बाद जी नहीं लगाया है, इस में उन के प्रति अनादर की भावना बिल्कुल नहीं है. आदर है, पर प्रेम भी है. इस लिए वो रवीश ही रहेंगे. कृपया भावनाओं को समझिए. हाँ, मेरी हिंदी पर आप को आपत्ती हो सकती है, तो उस की जिम्मेदार मैं हूँ जरूर.

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